एक शिव महापुराण कथा अपने श्रोता को शिव चरणों तक पहुचाने का कार्य करती है.
आज यह कथा श्री शिव गुरु शिव महापुराण कथा के नाम से प्रारम्भ हो रही है.
देवराज नाम के एक ब्राहमण की म्रत्यु होती है. उन्हें देव लोक ले जाया जा रहा था.
देवराज नाम के ब्राहमण ने पूछा जीवन में मैंने कभी सत्य कहा, ना कभी कोई पुण्य का कार्य किया. ना ही मैंने कभी कोई पुराण या शास्त्र ही पढ़ा, नाही मैंने कभी कोई तीर्थ यात्रा की. ना कभी कोई दान या अन्य कोई सत्कर्म किया, एवं ना ही कभी जीवन में कभी किसी को गुरु बनाया.
जब कुछ नहीं किया मैंने ऐसा क्या कर्म किया कि मुझे तो नरक भोगना चाहिए था, परन्तु मुझे नंदी पर बैठा कर ले जाया जा रहा है. आखिर यह पुण्य कौन सा हो गया मुझसे, जिसके कारण मुझे यह गति प्राप्त हो रही है.
हे देवराज तुमने दो पुण्य कार्य किये है
पहला पुण्य था, शिव मंदिर तक पहुचना. शिव महापुराण कथा कहती है, यदि कोई शिव मंदिर तक भी पहुच गया तो उसने सारे तीर्थ कर लिए है.
शिव महापुराण कथा का वाचन या श्रवण कर लिया तो मानना चाहिए उसने सारे वेद एवं शास्त्रों को पढ़ लिया है. देवराज नाम के ब्राहमण को शिव लोक प्राप्त होता है.
यदि किसी ने कभी कोई गुरु नहीं बनाया हो तब भी किसी शिव मंदिर में जाकर शिव के सामने शिव को गुरुमानकर ॐ नमः शिवाय, श्री शिवाय नमस्तुभ्यम का जाप कर लिया तो जानना चाहिए स्वयं शिव ने यह गुरु मंत्र दिया है.
आप हृदय से शिव भक्ति को प्राप्त कर रहे है, शिवमहापुराण कथा सुन रहे है तो आपने कभी किसी को गुरु बनाया या नहीं बनाया शिव आपके गुरु बन जाते है. एवं वे अपने भक्तों के साथ बने इस सम्बन्ध को निभाता जरुर है.
शिव में स्वप्न में आते है तो यह अच्छा संकेत है या बुरा संकेत है?
शिव जी का पूरा स्वरूप त्रिशूल धारी, नंदी, पार्वती, गणेश कार्तिकेय, अशोकसुंदरी एवं सम्पूर्ण परिवार के साथ यदि दिखाई देते है तो समझना चाहिए, जीवन में कोई बहुत बड़ा सुख प्राप्त होने वाला है.
केवल त्रिशूल, त्रिपुंड, रुद्राक्ष माला एवं मुस्कराहट के साथ केवल शिव दिखाई देवे तो समझना चाहिए कोई बड़ी समस्या आने वाली थी अब वह शिवजी दूर करने आए हैं.
शिवजी का कोई शिवलिंग नजर आ रहा है तो समझना चाहिए शिवजी आपके माध्यम से कोई अच्छा कार्य करवाने वाले है.
शिव भी परीक्षा लेता है, एवं श्री शिव महापुराण कथा भी परीक्षा लेती है.
एक गुरु अपने कई शिष्यों के साथ बैठे थे. सत्संग के माध्यम से गुरूजी ने शिष्यों से कहाँ अपना कार्य स्वयं को करना चाहिए, किसी दुसरे पर आश्रित नहीं रहना चाहिए. फिर गुरूजी ने कहा तिन लोग ऐसे है जिनका कार्य स्वयं का मानकर करना चाहिए.
माता,पिता एवं गुरु. इन तिन के द्वारा बताया गया कार्य हमें स्वयं का मानकर करना चाहिए.
इनके आदेश पर किया जाने वाला कोई भी कार्य हमेशा स्वयं का मानकर करना चाहिए. यह नहीं सोचना चाहिए यह काम माँ का है, या पिता का है या यह काम गुरूजी ने बताया है यह काम तो गुरूजी का है. नहीं! माता,पिता एवं गुरु द्वारा बताया गया कोई भी कार्य स्वयं का मानकर करना चाहिए.
सभी शिष्यों ने यह बात सुनी एवं ग्रहण करी.
अब गुरूजी ने कहा आज एक यजमान के घर हमें भोजन प्रसादी गृहण करनी है. सभी शिष्य एवं गुरूजी चलने लगे. रास्ते में एक बड़ा सा नाला आया, सभी शिष्य पार कर गए, गुरूजी पार करने लगे तो गुरूजी की खडाऊ (पादुका) नाली में गिर गई. तभी एक शिष्य झुक कर, हाथ से गुरूजी की पादुका निकालने का प्रयास करने लगा. नहीं निकली. वह अपने अंग वस्त्र को निकाल कर अलग रखकर स्वयं नाली में कूद गया एवं पादुका को धोकर गुरूजी को सौप दी.
अन्य शिष्यों ने कहाँ पादुका तो गुरूजी की थी वे क्यों नहीं कूदे. शिष्य ने कहाँ गुरूजी ने कहाँ था माता, पिता, एवं गुरु का कार्य स्वयं का मानकर करना चाहिए. इसलिए गुरु का कार्य करने में क्या झिझक?
गुरूजी ने वापिस आकर सभी शिष्यों को बुलाया एवं वह पादुका अपने उस शिष्य को दे दी जिसने पादुका नाली से निकाली थी. शिष्य अपने शीश पर लगा कर वह पादुका को अपने कक्ष में गया. अन्य शिष्य उसका मजाक उड़ाने लगे जो पादुका गुरूजी के कोई काम की नहीं रही, वह तुम्हें दे दी है.
शिष्य ने कहाँ मेरे गुरु की पादुका भी जीवन का सुख प्रदान करती है. वह शिष्य प्रतिदिन वह पादुका का पूजन करने लगा. समय बीतता गया. वह शिष्य समय के साथ उन्नति, वैभव एवं गुणों को प्राप्त करता चला गया.
गुरु यदि एक अक्षत के दाने को भी स्पर्श कर के आपको दे देता है, वह भी पूजित हो जाता है.
जब आपको सहारा देकर शिव के मंदिर तक ले जाता है, आपको शिव के चरणों तक ले जाता है तो एक दिन आप भी जगत मान सम्मान को प्राप्त करते है.
राम कृष्ण परमहंस अपने शिष्य विवेकानंद जी को लेकर समुद्र के तट पर ले गए. विवेकानंद जी से गुरूजी ने कहा स्वामी देखों समुद्र से मछुआरा जाल में कुछ मछलियां जाल में ला रहा है. उसमें तिन तरह की मछलियाँ है.
एक जो हार मान चुकी है, सोच चुकी है मैं तो मरने वाली हूँ.
एक जो एक बार प्रयास करती है, फिर सोचती है मैं जाल से बाहर नहीं जा पाऊँगी और हारकर बैठ जाती है.
जबकि एक मछली वह है जो बार बार प्रयास कर रही है. स्वामी तीनों मछलियों में से कौन सी मछली सफल होगी. स्वामी विवेकानंद जी ने कहा – वह तीसरे नंबर की मछली सफल होगी.
गुरुदेव कहते है तिन पड़ाव आते है.
एक वह जब मनुष्य हिम्मत हार जाता है, कि उससे जीवन की यह समस्या हल नहीं हो पाएगी.
दुसरे नंबर वह है जो थोड़ा प्रयास करता है, परन्तु फिर हार का डर लगने लगता है, लोगो ने कुछ कहा, निराशा बढ़ने लगी एवं प्रयास छोड़ दिया. लोग थोडा हसने लगे, मजाक बनाने लगे, निंदा करने लगे तो वह अपना प्रयास बंद कर देता है.
जबकि तीसरा वह है जो हार नहीं मानता, शिव का नाम स्मरण करते हुए, मजबूती से अपना काम करते रहते है. लोगो की परवाह छोड़ कर, लोगो की परवाह किये बिना अपना कार्य करते रहते है. वह व्यक्ति अंत में सफल ही होता है.
शिव थोडा परिश्रम भी करवाते है, अपना कर्म भी करवाते है. बस शिव नाम पर विश्वास करते हुए अपनी मेहनत करते रहिये एक न एक दिन सफलता जरुर मिलेगी.
पहले के समय में बिजनेस, पेट्रोल पम्प, दूकान आदि के आधार पर नहीं परिवार, घर, व्यवहार, प्रेम आदि देखकर सम्बन्ध होते थे. प्रेम का आधार दिल से नहीं अब दिमाग से होने लगे है.
पानी पीना छान एवं गुरु बनाना जान
जब किसी को गुरु बनाए तो सोच समझकर बनाइए. ऐसा गुरु बनाइए जो आप केवल खुद तक सिमित न रखे बल्कि आप को शिव तक ले कर जाएं. क्योंकि अंतिम सबंध तो शिष्य और शिव के बिच ही बनता है, गुरु तो वह साधन मात्र जो आपको शिव तक ले जाता है.
जिस तरह एक विवाह वर एवं वधु के बिच होता है, उस सबंध को बनाने के लिए पंडित जी होते है. जो वर वधु के बिच सम्बन्ध स्थापित करते है. उसी तरह गुरु वह है जो आपका एवं शिव के बिच सम्बन्ध स्थापित करता है. आपको शिव से जोड़ता है.
एक खिड़की को हवा आंधी आने पर लगा देते है, ताकि तेज हवा से घर के अन्दर रखा कांच आदि का सामान टूट न जाए, इसी तरह यह हमारे नेत्र, कर्ण भी एक खिड़की है, जब भी कभी कोई शिव निंदा, या गलत बाते, प्रसंग सुनने या दिखाई पड़े, अपने शरीर की इन खिडकियों को बंद कर लेना चाहिए ताकि हमारे मन के अन्दर विराजित हमारे शिव की मूरत भी हमसे दूर होने लगती है. जब कहीं कुछ गलत बाते सुनने को मिले वहां से दूर हो जाना ही बेहतर है.
इस तरह कथा का प्रथम दिवस यहाँ समाप्त होता है.
श्री शिवाय नमस्तुभ्यम
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